
घने, शांत और हरे-भरे समरद्वीप जंगल में कुरंगी नाम की एक मृदुभाषिणी हिरणी अपने झुंड के साथ निवास करती थी। एक दिन उसके आँगन में जीवन की मधुर घंटी बजी — उसने एक सुंदर, कोमल और नन्हे शावक को जन्म दिया। वह शावक कुरंगी की आँखों का तारा बन गया। माँ का हृदय जैसे उसके लिए ही धड़कने लगा था।
कुरंगी हर क्षण उसकी देखभाल में लगी रहती। वह उसे अपनी छाया में सुलाती, अपने आँचल-से स्पर्श में समेटे रखती, और हर खतरे से बचाती। माँ-बेटे का यह स्नेहिल संसार प्रकृति की गोद में पल रहा था।
एक दिन, झुंड की एक वृद्ध हिरणी गंभीर रूप से बीमार पड़ गई। उसकी चिकित्सा केवल एक दुर्लभ वनस्पति से ही संभव थी, जिसका एकमात्र पेड़ पड़ोस के ऊँचे पहाड़ी इलाके में था। कुरंगी उस दवा को पहचानती थी। अपने शावक की जिम्मेदारी झुंड पर सौंपकर, वह प्रातःकाल निःसंकोच उस औषधीय फल को लेने निकल पड़ी।
कई कठिन रास्तों और कंटीली झाड़ियों को पार करते हुए, उसने वह फल ढूँढ निकाला। लेकिन जैसे ही वह लौटने को हुई, एक शिकारी के जाल में फँस गई। शिकारी ने आते ही उसके पैर बाँध दिए। उस क्षण कुरंगी की आँखों में अपने तान्हले शावक की छवि कौंध गई — जिसके लिए माँ ही भोजन, माँ ही संसार थी। उसकी आँखें भर आईं। काँपते स्वर में वह शिकारी से बोली, “भैया, मेरा छोटा बच्चा घर पर अकेला है। उसे मेरे दूध की ज़रूरत है। कृपा कर मुझे छोड़ दो।”
शिकारी ने रूखे स्वर में उत्तर दिया, “मैं दस दिनों से यहाँ जाल बिछा रहा हूँ, लेकिन आज पहली बार शिकार मिली है। मेरे भी बच्चे हैं, जो भूखे हैं। मैं तुम्हें छोड़ नहीं सकता।”
कुरंगी ने फिर करुणा से प्रार्थना की, “भैया, मुझे बस एक बार अपने बच्चे को दूध पिलाने दो। मैं वादा करती हूँ — तुरंत लौट आऊँगी। बस इतना करुणा का दान दे दो।”
उसकी आँखों से झरते आँसू देख शिकारी का कठोर मन भी डोल गया। उसने रस्सियाँ खोलीं और कहा, “जाओ, लेकिन याद रहे, लौट आना।”
कुरंगी बिजली-सी दौड़ पड़ी। शिकारी भी उसे देखना चाहता था, इसलिए वह भी उसके पीछे हो लिया।
जब वह अपने शावक के पास पहुँची, तो वह खुशी से उछलता-कूदता उसकी ओर दौड़ा। माँ ने उसे स्नेह से सीने से लगा लिया। लेकिन शावक ने माँ की ओर देख कर कहा,
“माँ, आज तुम्हारा दूध पहले जैसा मीठा नहीं लग रहा। क्या बात है माँ? क्या तुम उदास हो?”
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यह सुनते ही कुरंगी का हृदय फट पड़ा। वह रोने लगी। शिकारी एक पेड़ की ओट में यह दृश्य देख रहा था। माँ और बच्चे के इस अपार प्रेम को देखकर उसके भीतर की मानवीय संवेदना जाग उठी।
वह कुरंगी के पास आया और बोला, “हिरणी, मैं हार गया तुम्हारे ममत्व के आगे। तुम लौट कर मत आना। मैं तुम्हें छोड़ रहा हूँ।”
कुरंगी ने विनम्रता से उत्तर दिया,
“भैया, यदि मैं न लौटी तो तुम्हारे बच्चे भूखे रहेंगे। मैं अपना वचन निभाऊँगी।”
तब शिकारी की आँखें भर आईं। उसने अपने धनुष और जाल नीचे रख दिए और बोला,
“हर समस्या का हल होता है। लेकिन किसी माँ को उसके बच्चे से अलग करना सबसे बड़ा पाप है। आज से मैं शिकार करना छोड़ता हूँ।”
तात्पर्य: माँ का प्रेम न जाति देखता है, न प्राणी और न भाषा। पशु-पक्षी भी इस धरती का उतना ही सुंदर हिस्सा हैं जितना हम। उनके साथ करुणा, संवेदना और सम्मान का व्यवहार ही सच्चा मानव धर्म है।
- – मच्छिंद्र ऐनापुरे,जत जिला सांगली