मास्टर सूर्यसेन की प्रेरणादायी कहानी
मास्टर सूर्यसेन न केवल एक निर्भीक शिक्षक थे, बल्कि उनके अंदर आदर्शवाद और ईमानदारी का ऐसा सम्मिश्रण था, जो आज के समय में बहुत कम देखने को मिलता है। उनका दृढ़ निश्चय और कर्तव्य के प्रति समर्पण हर शिक्षक के लिए एक मिसाल है।
यह घटना उस समय की है जब सूर्यसेन की नियुक्ति बंगाल के एक स्कूल में हुई थी। विद्यालय में वार्षिक परीक्षाएं चल रही थीं, और उन्हें एक परीक्षा भवन की निगरानी का दायित्व सौंपा गया था। संयोगवश, उसी परीक्षा भवन में स्कूल के प्रधानाचार्य का पुत्र भी परीक्षा दे रहा था। परीक्षा के दौरान सूर्यसेन की नजर अचानक उस छात्र पर पड़ी और उन्होंने उसे नकल करते हुए रंगे हाथ पकड़ लिया।
सूर्यसेन के लिए यह कोई साधारण स्थिति नहीं थी। प्रधानाचार्य का पुत्र होने के नाते, वे इसे नज़रअंदाज कर सकते थे, लेकिन उनके आदर्श और कर्तव्यबोध ने उन्हें ऐसा करने की इजाज़त नहीं दी। उन्होंने उस छात्र को तत्काल परीक्षा से वंचित कर दिया। जब परीक्षा परिणाम आया, तो प्रधानाचार्य का पुत्र अनुत्तीर्ण हो गया। यह खबर तेजी से पूरे विद्यालय में फैल गई। सभी शिक्षकों और छात्रों में यह चर्चा होने लगी कि सूर्यसेन को अब अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ेगा। सभी ने मान लिया था कि प्रधानाचार्य अपने पुत्र के साथ हुए इस अपमान को बर्दाश्त नहीं करेंगे और सूर्यसेन को इसकी सजा जरूर देंगे।
दूसरे दिन जब सूर्यसेन विद्यालय पहुंचे, तो उन्हें प्रधानाचार्य ने अपने कक्ष में बुलाया। सभी शिक्षक उत्सुकता से परिणाम का इंतजार कर रहे थे। वे सोच रहे थे कि सूर्यसेन का अब बुरा समय शुरू होने वाला है। परंतु जो हुआ वह सबकी अपेक्षाओं के विपरीत था।
जब सूर्यसेन प्रधानाचार्य के कक्ष में पहुंचे, तो प्रधानाचार्य ने उनका न केवल स्वागत किया, बल्कि उन्हें स्नेहपूर्वक सम्मान भी दिया। प्रधानाचार्य ने कहा, “मुझे गर्व है कि मेरे विद्यालय में आप जैसे कर्तव्यनिष्ठ और आदर्शवादी शिक्षक हैं, जिन्होंने मेरे पुत्र को भी नियमों के अनुसार दंडित करने में कोई कोताही नहीं बरती। अगर आप उसे नकल करते हुए पकड़ने के बावजूद उत्तीर्ण कर देते, तो मैं आपको नौकरी से निकाल देता।”
यह सुनकर सूर्यसेन मुस्कुराए और विनम्रता से बोले, “यदि आपने मुझे अपने पुत्र को उत्तीर्ण करने के लिए विवश किया होता, तो मैं स्वयं ही इस्तीफा दे देता। मेरा इस्तीफा इस समय मेरी जेब में है।”
सूर्यसेन का यह जवाब सुनकर प्रधानाचार्य बहुत खुश हुए। उनके मन में सूर्यसेन की इज्जत दोगुनी हो गई। इस घटना ने न केवल विद्यालय में सूर्यसेन की प्रतिष्ठा को बढ़ाया, बल्कि यह भी साबित कर दिया कि ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा कभी व्यर्थ नहीं जाती।
सीख:
इस कहानी से हमें यह सीख मिलती है कि ईमानदारी और सत्य का मार्ग हमेशा कठिन हो सकता है, लेकिन यह मार्ग हमें सच्ची प्रतिष्ठा और सम्मान दिलाता है। बुद्धिमत्ता की पुस्तक में ईमानदारी ही पहला अध्याय है, और जीवन में सत्य का साथ देना ही सच्चा आदर्श है।
असली सफलता वह है जब हम अपने आदर्शों और सिद्धांतों पर कायम रहते हुए जीवन के हर मोड़ पर सच्चाई और ईमानदारी से काम लें।