ब्रह्ममुहूर्त
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आधुनिक समाज और ब्रह्ममुहूर्त का कम होता महत्त्व

आजकल लोगों के लिए वही समय मायने रखता है जब वे आठ-नौ बजे तक बेफिक्र होकर उठते हैं। बाकी समय वे सांसारिक कार्यों में व्यस्त रहते हैं। इसलिए, नई पीढ़ी ने ब्रह्ममुहूर्त को एक नया रूप दे दिया है – अब इसमें केवल ‘मुहूर्त’ रह गया है, और ‘ब्रह्म’ कहीं खो गया है।

क्या भारतीय संस्कृति में रचे-बसे सांसारिक मनुष्यों को ‘ब्रह्ममुहूर्त’ शब्द की गहराई का आत्मचिंतन करने की आवश्यकता नहीं है, या वे अपने अस्तित्व को दांव पर लगाकर ही रहेंगे?

ब्रह्ममुहूर्त

बदलते समय में यदि आम लोगों से पूछा जाए कि ब्रह्ममुहूर्त में कौन जागता है, तो अधिकतर उत्तर “नहीं” ही मिलेगा। लेकिन यह भी सच है कि आज भी कुछ घरों में ऐसे लोग मिल जाएंगे जो ब्रह्ममुहूर्त की बेला में जागते हैं।

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ब्रह्ममुहूर्त क्या है, इसका जीवन में क्या महत्व है, और इसका हमारे जीवन से क्या संबंध है, यह आज की पीढ़ी के लिए बहुत हद तक अज्ञात है। दरअसल, सुबह चार बजे का समय, यानी सूर्योदय से पूर्व का समय ब्रह्ममुहूर्त कहलाता है, जिसे अमृतबेला भी माना जाता है।

ऋषि-मुनियों ने लिखा है कि ब्रह्ममुहूर्त के समय जागकर, नित्यकर्मों से निवृत्त होकर धार्मिक कार्यों में संलग्न होना चाहिए, ताकि मनुष्य अपनी दिनचर्या और जीवन के विषय में ईमानदारी से चिंतन कर सके। हमारे शास्त्रों में ब्रह्ममुहूर्त को भगवत भक्ति, आत्मा-परमात्मा के चिंतन और ध्यान के लिए उपयुक्त समय माना गया है।

ब्रह्ममुहूर्त

प्रातः काल जल्दी उठने से न केवल स्वास्थ्य लाभ होता है, बल्कि प्राचीन काल में इसका अर्थ और भी व्यापक था। यह समय रात्रि और दिन के मिलन का होता था, जब ईश्वर की आराधना और आत्मा-परमात्मा के मिलन का प्रयास किया जाता था। परंतु आज के संदर्भ में इसके मायने बदल गए हैं, और सकारात्मक विचारों की शून्यता घर कर गई है।

अब लोग अपने समय को अपनी सुविधा के अनुसार चला रहे हैं, और जीवन का अर्थ बदल चुका है। भौतिकवादी संस्कृति के पीछे भागना मनुष्य की नियति बन गई है। आधुनिकता की दौड़ में पुरुषों के साथ महिलाएं भी शामिल हैं, और अब उनका कार्य ब्रह्ममुहूर्त में ध्यान मग्न होना नहीं, बल्कि अपनी दिनचर्या को पूरा करना है।

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हालांकि ब्रह्ममुहूर्त का मूल अर्थ अब भी वही है, पर लोगों की सोच बदल गई है। जैसे-जैसे मनुष्य सांसारिकता और भोग विलास में डूबता गया, उसका नैतिक पतन होता गया। इसका कारण मनुष्य जीवन के महान आदर्शों का लुप्त होना और पाश्चात्य संस्कृति का उदय है।

कुछ समाजशास्त्रियों का मानना है कि ब्रह्ममुहूर्त का अर्थ केवल कुछ वर्गों के लिए था, जिन्हें इस समय जागने और पूजा-पाठ करने पर आदर की दृष्टि से देखा जाता था। प्राचीन समय में भी कुछ लोग आधी रात तक जागते थे, और आज भी ऐसे लोग मिलते हैं।

ब्रह्ममुहूर्त

समय वही है, पर परिस्थितियां बदल गई हैं। लोगों की व्यस्तता इतनी बढ़ गई है कि उनके पास निर्धारित समय पर भोजन करने और सोने का भी समय नहीं रह गया है। महानगरीय संस्कृति ने भी आम व्यक्ति की दिनचर्या को प्रभावित किया है।

प्रतिस्पर्धा की दौड़ में लोग बेतहाशा दौड़ रहे हैं, इसलिए वे अपना समय व्यर्थ नहीं करना चाहते। इसी कारण, आराम का समय भी व्यस्तता में ही गुजर रहा है, और लोग कई बीमारियों से घिर गए हैं। ऐसे में, ब्रह्ममुहूर्त में उठने की उम्मीद किससे की जा सकती है?

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अब लोगों के लिए वही समय महत्वपूर्ण है जब वे आठ-नौ बजे तक बेफिक्र होकर उठते हैं और बाकी समय सांसारिक कार्यों में व्यतीत करते हैं। नई पीढ़ी ने इसे नया रूप दे दिया है, जिसमें ब्रह्ममुहूर्त में केवल मुहूर्त रह गया है और ब्रह्म कहीं खो गया है।

क्या भारतीय संस्कृति में रचे-बसे सांसारिक मनुष्यों को ‘ब्रह्ममुहूर्त’ की गहराई का आत्मचिंतन करने की आवश्यकता नहीं है, या वे अपने अस्तित्व को दांव पर लगा देंगे?

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