मूर्तिकार विजेय और उसका अहंकार
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यह बहुत पुरानी बात है। गांधार नामक प्रदेश में ‘विजेय’ नाम का एक मूर्तिकार रहता था। ऐसा कलाकार, जिसकी उंगलियों में मानो जादू समाया हो। पत्थर को छूते ही वह उसमें जान फूंक देता, जैसे पत्थर बोल उठे हों।

राजा राजवर्धन ने अपने महल की शोभा बढ़ाने के लिए अनेक मूर्तियाँ बनवाईं, और यह काम उन्होंने सिर्फ विजेय को सौंपा। विजेय की कला ने न केवल राजा को, बल्कि पूरे भारतवर्ष को चमत्कृत कर दिया। वह दिन दूर नहीं था जब विजेय का नाम हर दिशा में गूंजने लगा।

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लेकिन यहीं से उसके पतन की शुरुआत भी हुई। दिन-ब-दिन बढ़ती प्रसिद्धि ने उसके भीतर घमंड भर दिया। धीरे-धीरे वह अपने दोस्तों और शुभचिंतकों से कटने लगा। उसका व्यवहार रूखा और आत्ममुग्ध होता गया।

एक दिन सूरजदीप राज्य के एक मंत्री विजेय के पास आए। उनके साथ राजगुरु ‘शक्तिबाबा’ भी थे। मंत्री ने आदरपूर्वक कहा, “महाराज दीपरौप्य को अपने गुरु पर अत्यंत श्रद्धा है। हम चाहते हैं कि आप शक्तिबाबा की एक सुंदर मूर्ति बनाएं।”

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विजेय ने थोड़े तिरस्कार के साथ पूछा, “शक्तिबाबा में ऐसी क्या विशेषता है जो राजा उन्हें इतना मानते हैं?”

मंत्री ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया, “इनमें भूत, वर्तमान और भविष्य जानने की दिव्य दृष्टि है।”

यह सुनकर विजेय थोड़ा चौंका। उसने शक्तिबाबा को आसन पर बैठाया और कहा, “बाबा, अगर आप भविष्य देख सकते हैं, तो मेरा भी बताइए। लेकिन मेरी प्रसिद्धि, कला और धन का बखान मत कीजिए — उसके सिवा जो भी देख सकें, वो कहिए।”

शक्तिबाबा ने विजेय का हाथ देखा और कुछ क्षणों तक गहरे विचार में डूबे रहे। फिर बोले, “विजेय, तुम्हारा भविष्य तो मैं देख पा रहा हूँ… लेकिन वह कुछ ऐसा है जिसे बताना उचित नहीं लगता।”

विजेय ने आग्रह किया, “बाबा, कृपया बताइए। मैं हर बात सुनने को तैयार हूँ।”

शक्तिबाबा गंभीर स्वर में बोले, “बेटा, आज से ठीक चालीसवें दिन की आधी रात तुम्हारे जीवन की अंतिम घड़ी होगी। तुम्हारी मृत्यु तय है।”

विजेय यह सुनकर हक्काबक्का रह गया। पर वह हार मानने वालों में से नहीं था। उसने यमराज को धोखा देने की योजना बना डाली। उसने खुद की पांच हूबहू मूर्तियाँ बनाईं और चालीसवें दिन की रात उन सब मूर्तियों को ज़मीन पर लिटा दिया। खुद भी उनके बीच लेट गया — बिलकुल निर्जीव बनकर।

रात के अंधेरे में यमराज पधारे। उन्होंने देखा — ज़मीन पर छह विजेय पड़े हैं! अब असली कौन?

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वे क्षण भर रुके, फिर मुस्कराकर बोले, “वाह! मूर्तिकार ने पाँच मूर्तियाँ तो अद्भुत बनाई हैं, लेकिन एक मूर्ति में बहुत बड़ी भूल हो गई है। यह कैसे हो गया?”

यह सुनते ही असली विजेय अपने आप उठ बैठा और यमराज से पूछा, “कैसी भूल? बताइए तो सही!”

यमराज ने गंभीरता से कहा, “विजेय, भूल यह है कि तुम अब भी अपने घमंड से मुक्त नहीं हो पाए। इसी घमंड ने तुम्हारे जैसे महान कलाकार को भीतर से खोखला बना दिया है।”

इतना सुनना था कि विजेय फूट-फूटकर रो पड़ा। वह यमराज के चरणों में गिर पड़ा और बोला, “मुझे क्षमा कीजिए। मैं अपनी भूल मानता हूँ। अब से मैं अहंकार का त्याग करूंगा।”

वहीं पास में शक्तिबाबा खड़े मुस्कुरा रहे थे। यह सब एक योजना का हिस्सा था — विजेय को उसका अहंकार दिखाने की योजना।

उस रात के बाद विजेय ने न केवल अपना घमंड छोड़ दिया, बल्कि एक विनम्र और परिपक्व कलाकार बनकर उभरा।

सीख: कला, ज्ञान या सफलता चाहे जितनी भी हो — अगर उसमें विनम्रता न हो, तो वह अपने अर्थ खो देती है। अहंकार इंसान को ऊँचाई से गिरा सकता है, लेकिन विनम्रता उसे सबके दिलों में बसा देती है।

– मच्छिंद्र ऐनापुरे, जत जिला सांगली

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