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करीब दो हजार वर्ष पूर्व, जब दुनिया में उच्च शिक्षा का कोई ठोस ढांचा भी विकसित नहीं हुआ था, तब भारत की धरती पर नालंदा और तक्षशिला जैसे ज्ञान के आलोकस्तंभ खड़े थे। ये संस्थान न केवल भारत, बल्कि सम्पूर्ण एशिया के लिए बौद्धिक प्रकाशस्तंभ थे। चीन, कोरिया, पर्शिया और दक्षिण-पूर्व एशिया से विद्यार्थी और विद्वान भारत आते थे—बौद्धिक स्वतंत्रता, बहुशाखीय अध्ययन और नैतिक मूल्यांकन की समावेशी परंपरा से प्रेरित होकर।

भारत: एक बार फिर बनेगा वैश्विक शिक्षा का केंद्र?

आज, जब वैश्विक उच्च शिक्षा का परिदृश्य फिर से करवट ले रहा है, भारत के पास एक बार फिर विश्वगुरु बनने का अवसर है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 जैसे ऐतिहासिक सुधार इसी दिशा में मार्ग प्रशस्त कर रहे हैं। साथ ही, वैश्विक परिदृश्य में आए बदलाव—विशेषतः अमेरिका और ब्रिटेन जैसे पारंपरिक शिक्षा केंद्रों में अस्थिरता—भारत के लिए एक अद्वितीय अवसर लेकर आए हैं।

अमेरिका में राष्ट्रपति ट्रम्प के कार्यकाल के दौरान अपनाए गए आर्थिक राष्ट्रवाद और शिक्षा बजट में कटौती के चलते वहाँ की उच्च शिक्षा प्रणाली संकट में है। विदेशी छात्रों को मिलने वाले कार्य अवसर सीमित कर दिए गए हैं। ‘द इंस्टीट्यूट ऑफ इंटरनेशनल एजुकेशन’ की रिपोर्ट के अनुसार, विदेशी छात्रों के दाखिले में 12% की गिरावट आई है। भारत के लगभग 2.68 लाख विद्यार्थी अमेरिका में शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं—उनके लिए यह चेतावनी की घंटी है।

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इसके विपरीत, India में ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020’ बहुआयामी बदलावों की नींव रख रही है। नीति का फोकस है—वैश्विक साझेदारी, अंतरराष्ट्रीय महाविद्यालयों का सहयोग, विद्यार्थियों का आदान-प्रदान और भारत के शिक्षण संस्थानों को वैश्विक प्रतिस्पर्धा में सक्षम बनाना। नालंदा के मॉडल को ध्यान में रखकर बहुशाखीय विश्वविद्यालयों की कल्पना की जा रही है, जिनमें उदार, जिज्ञासापरक और शोध-केंद्रित शिक्षा को प्रोत्साहन मिलेगा।

यह बदलाव केवल विचार नहीं, बल्कि कार्यरूप ले रहे हैं। भारत अब केवल ‘ब्रेन ड्रेन’ करने वाला देश नहीं, बल्कि ‘ज्ञान का केंद्र’ बनने की राह पर अग्रसर है। यदि भारतीय छात्रों को विश्वस्तरीय शिक्षा और करियर के अवसर देश में ही प्राप्त हों, तो वे देश की संस्थाओं को प्राथमिकता देंगे। साथ ही, विदेशों में कार्यरत हजारों भारतीय प्रोफेसर—जो अब सख्त होते आप्रवासन कानूनों और वैचारिक दमन से जूझ रहे हैं—भारत लौटने या सहयोग करने का विचार कर सकते हैं।

भारत: एक बार फिर बनेगा वैश्विक शिक्षा का केंद्र?

हालांकि, यह राह आसान नहीं। भारत को अपनी अनुसंधान प्रणाली को मज़बूत बनाना होगा। जहाँ हम आज जीडीपी का केवल 0.7% अनुसंधान पर खर्च करते हैं, वहीं चीन 2.1% और दक्षिण कोरिया 3% खर्च करते हैं। जलवायु अनुकूलता, डिजिटल स्वास्थ्य, कृत्रिम बुद्धिमत्ता और स्वच्छ ऊर्जा जैसे क्षेत्रों में निवेश बढ़ाना होगा।

‘ग्लोबल साउथ’ के देशों के लिए भारत एक सुलभ, गुणवत्तापूर्ण और अंग्रेज़ी माध्यम से शिक्षण प्रदान करने वाला उपयुक्त विकल्प बन सकता है। ‘स्टडी इन इंडिया’ जैसे अभियान, और राष्ट्रीय शिक्षा नीति की अंतरराष्ट्रीय साझेदारी की दृष्टि, भारत को शिक्षा के वैश्विक मानचित्र पर स्थापित कर सकते हैं।

India के उच्च शिक्षा संस्थानों को अधिक स्वायत्तता, अधिक निवेश और वैश्विक साझेदारी की ज़रूरत है। प्राध्यापकों का आदान-प्रदान, अंतरराष्ट्रीय प्रयोगशालाएं, दोहरी डिग्री प्रोग्राम और आधुनिक वीज़ा नीतियाँ इस बदलाव की धुरी होंगी। पुणे, हैदराबाद और बेंगलुरु जैसे वैश्विक स्तर पर पहचाने जाने वाले शहरों में क्षेत्रीय शिक्षा हब स्थापित किए जा सकते हैं।

भारत: एक बार फिर बनेगा वैश्विक शिक्षा का केंद्र?

भारत में फैले प्रतिभावान प्राध्यापकों का एक वैश्विक नेटवर्क बनाया जा सकता है, जो शोध निधि, फेलोशिप और मार्गदर्शन प्रदान कर सके। विश्वविद्यालयों को राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त करने की दिशा में भी ठोस संस्थागत ढांचा खड़ा करना होगा।

नालंदा विश्वविद्यालय की तरह—जहाँ एक समय 10,000 विद्यार्थी अध्ययन करते थे, और जो ज्ञान, स्वतंत्रता और सांस्कृतिक आत्मविश्वास का प्रतीक था—India को फिर से शिक्षा की वैश्विक राजधानी बनने का प्रयास करना चाहिए। आज, जब दुनिया नई ज्ञानस्थल की तलाश में है, भारत के पास युवा जनसंख्या, लोकतांत्रिक सोच, अंग्रेज़ी दक्षता और नीति-संवर्धित ढांचा मौजूद है।

यह समय है—एक नए ‘नालंदा’ के निर्माण का। न केवल अतीत को दोहराने के लिए, बल्कि भविष्य का नेतृत्व करने के लिए।

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