
अश्मक राज्य का राजा देवभूति एक प्रजावत्सल और न्यायप्रिय शासक था। उसकी रानी मोहिनीदेवी गुणी और बुद्धिमती थी। राज्य में सब कुछ शांतिपूर्वक और समृद्धिपूर्वक चल रहा था कि तभी एक दिन अचानक पड़ोसी राज्य के राजा जितेन्द्रिय ने अश्मक पर आक्रमण कर दिया।
देवभूति इस हमले के लिए तैयार नहीं था, इसलिए उसे हार का सामना करना पड़ा। संधि करनी पड़ी और वह जितेन्द्रिय के अधीन हो गया। उसका स्वतंत्र राज्य समाप्त हो गया। इस हार से देवभूति का मन टूट गया। उसने शासन के कार्यों से मुँह मोड़ लिया।
अब न उसे प्रजा की चिंता थी, न परिवार की। वह दिन-रात निराशा और आत्मग्लानि में डूबा रहता।
एक दिन रानी मोहिनीदेवी उससे मिलने आई। उसने देखा कि राजा गहरे सोच में डूबा है। वह धीमे लेकिन दृढ़ स्वर में बोली —
“राजन, प्रजा का कल्याण करना एक राजा का सबसे बड़ा धर्म होता है। पर आप तो सबकुछ छोड़ बैठे हैं। न राज्य की चिंता है, न लोगों की। क्या केवल एक हार ही आपको इस तरह तोड़ सकती है? हमारे पूर्वजों ने इस राज्य को खून-पसीने से सींचा है। आप यूँ हाथ पर हाथ धरकर बैठेंगे, तो उनका अपमान होगा।”
देवभूति ने एक गहरी साँस ली और बोला — “मोहिनी, उस युद्ध में मेरी हार नहीं हुई, मेरा आत्मसम्मान भी कुचला गया। जितेन्द्रिय ने मेरी पीठ में छुरा घोंपा है। अब मुझमें लड़ने का साहस ही नहीं बचा।”
रानी ने राजा की आँखों में देख कर कहा — “राजन, एक बात स्मरण रखिए — हजारों प्राण आपकी आशा पर टिके हैं। जब राजा हार मान लेता है, तब राज्य भी डूबने लगता है।
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वीणा की तारों में मधुर स्वर होते हैं, पर उसे वही सुन पाता है जो प्रयासपूर्वक उन्हें छेड़ता है। लकड़ी में अग्नि छिपी होती है, लेकिन उसे जलाने के लिए श्रम चाहिए। गाय भी उसी को दूध देती है जो धैर्यपूर्वक उसके पास बैठता है।
यदि आपने प्रयास ही छोड़ दिया, तो यह राज्य तो डूबेगा ही, आपके नाम का भी अस्तित्व समाप्त हो जाएगा।”
रानी के ये शब्द जैसे चेतना का संचार कर गए। देवभूति ने अपने पास रखी तलवार की मूठ थामी, उठ खड़ा हुआ और ऊँचे स्वर में गर्जना की —”अश्मक फिर से विजयी होगा!”
राजमहल से सेना को रवाना किया गया। देवभूति ने साहस और बुद्धिमत्ता से लड़ते हुए जितेन्द्रिय को परास्त किया और अपने राज्य को स्वतंत्रता के साथ फिर से गौरव दिलाया।